हर इक हाथ में पत्थर है क्या किया जाये।

ये आईने का मुक़द्दर है क्या किया जाये।।

बना लिया है उसे मर्कज़-ए-नज़र मैंने।

सरापा हुस्न का पैकर है क्या किया जाये।।

वह चाहे जान भी ले ले मिरी तो है मंजू़र।

मेरा भरोसा उसी पर है क्या किया जाये।।

अगर वह चाहे भी इक पल तो जी नहीं सकता।

अजल का वक़्त मुक़र्रर है क्या किया जाये।।

चला गया है वह मक़तल से क़त्ल करके मगर।

ये जुर्म भी मेरे सर पर है क्या किया जाये।।

कोई महल में रहे और किसी को छत भी नहीं।

ये अपना-अपना मुक़ददर है क्या किया जाये।।

जुनून मुझको है ’साहिल’ तलक पहुॅुचने का।

मगर ये ग़म का समन्दर है क्या किया जाये।।

Har eik hath me’n patthar hai kya kiya jaaye

Ye aayine ka muqaddar hai kya kiya jaaye…

Bana liya hai use markaz e nazar maine

Saraapa husn ka paiker hai kya kiya jaaye…

Woh chahe jaan bhi le le meri to hai manzoor

Mera bharosa ussi par hai kya kiya jaaye….

Agar woh chahe bhi ek pal to jee nahi’n sakta

Ajal ka waqt muqararr hai kya kiya jaaye….

Chala gaya hai woh maqtal se qatl karke magar

Ye jurm bhi mere sar par hai kya kiya jaaye…..

Koi mahal me’n rahe aur kisi ko chhat bhi nahi’n

Ye apna apna muqaddar hai kya kiya jaaye….

Junoon mujhko hai ‘Sahil’ talak pahunchne ka

Magar ye gham ka samandar hai kya kiya jaaye….

ہر ایک ہاتھ میں پتھر ہے کیا کیا جائے

یہ اینے کا مقدّر ہے کیا کیا جائے

بنا لیا ہے اسے مرکز نظر مہینے

سراپا حسن کا پیکر ہے کیا کیا جائے

وہ چاہے جان بھی لے لے میری تو ہے منظور

میرا بھروسا اسی پر ہے کیا کیا جائے

اگر وہ چاہے بھی ایک پل جی نہی سکتا

اجل کا وقت مقرّر ہے کیا کیا جائے

چلا گیا ہے وو مقتل سے قتل کرکے مگر

یہ جرم بھی میرے سر پر ہے کیا کیا جائے

کوئی محل میں رہے اور کسی کو چھت بھی نہیں

یہ اپنا اپنا مقدّر ہے کیا کیا جائے

جنوں مجھکو ہے ‘ساحل’ تلک پہنچنے کا

مگر یہ غم کا سمندر ہے کیا کیا جائے

‘SAHIL’